कविता
ना डर था ठोकरों कि ना डर कठिनाईयों का था
उड़ाकर पतंग जैसे आसमानों को छूकर
बुलंदियों पर पहुंच जाना था
मगर क्या करें बचपन में मेरा भी मन
तितलियों का दीवाना था
कभी सोचा ना था कि बचपन यूं ही गुजर जाएगा
बेगाने अपने और अपना पराया हो जाएगा
बनाकर नाव को कश्तियां सागरों के पार जाना था
मगर क्या करें बचपन में मेरा भी मन
तितलियों का दीवाना था
मां की ममता बहन का प्यार
सताते हैं हमको हमेशा वो यार
कभी छोटी-छोटी गलतियों पर पापा से मार खाना था
मगर क्या करें बचपन में मेरा मन
तितलियों का दीवाना था
( विशाल सर की कलम से........)
लगता है अब हम हार गए
हवा भरे गुब्बारे को मेले में लेने सौ सौ बार गए है
अब गांव में जब भी बाढ़ आती है
सच में बचपन की बहुत याद आती है
पानी में अपनी नाव चलाना झट से पेड़ पर चढ़ जाना
गिल्ली डंडा खेल कर शाम को मन बहलाना था
पर क्या करें बचपन में मेरा भी मन तितलियों का दीवाना था
वह मदारी के पीछे भागना
कहानी नानी से सुनने के खातिर रातों में जागना
खेल में मोटू को पेटू कहकर चिढ़ाना था
बचपन में मेरा भी मन तितलियों का दीवाना था
ओ मां जब भी कहती थी
आ बेटे ठंड लग रही है नेकर मैं तुझे पहना दू
उससे बिछड़ कर दूर भाग जाना था
पर क्या करें बचपन में मेरा भी मन
तितलियों का दीवाना था
अद्वितीय ऋषि कपूर भारती


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