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Showing posts from March, 2019

नज़्म

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जिंदगी में बड़ा झमेला है हमने सर्पों का दंश भी झेला है उसने सावक संग भी खेला है  तभी तो भारतवर्ष में लगा धर्मों का मेला है      अद्वितीय ऋषि कपूर भारती

नज़्म

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 मैं जहर खोज रहा हूं अमृत की बस्ती में मिलेगा क्या ? धुएं ने आसमान में जाले बना दिए सूर्य उससे रुकेगा क्या ? मेरे भावना से खिलवाड़ करके  तुम मुझसे दूर जा रहे हो मेरे जितना तुमसे कोई मोहब्बत करेगा क्या ? मेरी आशाओं का एक घायल से अचेत पड़ा है जैसे जज्बातों की कलम में स्याही सूख गई है अब वह चलेगा क्या ? वो मरा नहीं है  जिसकी अंतिम सांस अभी भी अटकी है वो जलेगा क्या ? शहनाइयां लाख बजाओ तुम भले ही वीरों को श्रृंगार का चादर ओढ़ाओ तुम दुल्हन जिसकी मौत है  वो दूल्हा कभी बनेगा क्या ?                  अद्वितीय  ऋषि  कपूर भारती

कविता

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      हे ! वत्स   खंजन नयन में अंजन नहीं मस्तक पर तिलक नहीं , हस्त  में न भाल ले ले...ले... ले.... बेटे ये मां नाम का चादर है         तू अपने तन पर डाल ले   झुक कर मत चलना  देखना तुम बाजीली निगाहों से  उत्तुंग शिखर पर चितचोर अरि भी बैठा होगा  रक्त और रुधिर तुम्हारा पीने कालसर्प भी ऐठा होगा शौर्य की गाथा राष्ट्र गाएगा जवानी को तू अपने छान ले ले...ले... ले... बेटे मां नाम का चादर है  तू अपने तन पर डाल ले उपाधियों को ध्यान में रख  राष्ट्र का अभिमान ले कर जोड़ गिराते हुए शत्रु का  आश्रय दाता बन जा न तू उसकी जान ले ले... ले... ले... बेटे मां नाम का चादर है  तू अपने तन पर डाल ले   प्रहरी तू देश का है स्वदेश का अभिमान ले हो काशी वाला या कर्बला का  भक्षक हो राष्ट्र का गर  नीसंकोच दुश्मन तू अपना मान ले ले... ले... ले... बेटे ये मां नाम का चादर है  तू अपने तन पर डालें इन बूढ़ी आंखों की आशा है तू गम में खुशियों की परि...

नज़्म

दौलत को ठोकर लगा है मोहब्बत के क़दमों में जाके गिरा है , गमो में खुशियों की महफ़िल सजा है ऋषि जो कुछ भी है, उसकी जननी मां शारदे की दुआ है !!                           अद्वितीय ऋषि कपूर भारती

कविता

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      सांसे रुक रही है मेरी मैं अंतिम सफर पर हूं , समाचार नहीं पूछोगे क्या ? नफरत तो तुम बहुत दिए प्यार नहीं दोगे क्या ?                            झूठी खबरों से उठ चुका हूं                          अखबार नहीं दोगे क्या ?  नाविक हो तुम भवसागर के मुझे उस पार नहीं करोगे क्या ? तुम्हारी धमकियों से तंग आ चुका हूं मुझ पे वार नहीं करोगे क्या माना कि सहने वाले सभी गुलाम है  तो क्या जालिम को खुदा कहोगे क्या ? जगत जनानिया मर रही है जगत जनानियो के पेटो में समाज को भ्रूण हत्या से जुदा करोगे क्या ? जल रहा है राष्ट्र मेरा  घूसखोरी और बलात्कारी के उजाले में उसे बुझा कर मुझे शीतल का परिचय दोगे क्या ? अब सत्ताधिशो के आगे  लोकतंत्र दम तोड रहा है जुर्म सहने वाला न्यायालय में क्यों हाथ जोड़ रहा है ?  लेखनी में धार नहीं है शाही अभी भी सो रही है  दिन के उजाले में लू...

कविता

    दुविधा ओं का दौर खुला अब     अपने गिरेबा में तुम झांक लो     कहते हो पर्याप्त शिक्षा है समाज में     तो तुम गलत हो ......     जरा रुको ,     कूड़े मे भोजन तलाशने वाले     चेहरे की और एक बार तुम ताक लो।                           अद्वितीय कवि ऋषि कपूर भारती