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"स्त्री का शिष्यत्व"

 स्त्री का शिष्यत्व स्त्री अगर शिष्य हो, तो उससे श्रेष्ठ शिष्य खोजना मुश्किल है। स्त्री का शिष्यत्व श्रेष्ठतम है। कोई पुरुष उसका मुकाबला नहीं कर सकता है। क्योंकि समर्पण की जो क्षमता उसमें है, वह किसी पुरुष में नहीं है। जिस संपूर्ण भाव से वह अंगीकार कर लेती है, ग्रहण कर लेती है, उस तरह से कोई पुरुष कभी अंगीकार नहीं कर पाता, ग्रहण नहीं कर पाता। जब कोई स्त्री स्वीकार कर लेती है, तो फिर उसमें रंचमात्र भी उसके भीतर कोई विवाद नहीं होता है, कोई संदेह नहीं होता है; उसकी आस्था परिपूर्ण है। अगर वह मेरे विचार को या किसी के विचार को स्वीकार कर लेती है, तो वह विचार भी उसके गर्भ में प्रवेश कर जाता है। वह उस विचार को भी, बीज की तरह, गर्भ की तरह अपने भीतर पोसने लगती है। पुरुष अगर स्वीकार भी करता है, तो बड़ी जद्दो-जहद करता है, बड़े संदेह खड़ा करता है, बड़े प्रश्न उठाता है। और अगर झुकता भी है, तो वह यही कह कर झुकता है कि आधे मन से झुक रहा हूँ, पूरे से नहीं। शिष्यत्व की जिस ऊंचाई पर स्त्रियां पहुंच सकती हैं, पुरुष नहीं पहुंच सकते। क्योंकि निकटता की जिस ऊंचाई पर स्त्रियां पहुंच सकती हैं, पुरुष नहीं पहुंच ...
 उठो धरा के अमर सपूतो / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी   द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी   » उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो। जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो। नया प्रात है, नई बात है, नई किरण है, ज्योति नई। नई उमंगें, नई तरंगे, नई आस है, साँस नई। युग-युग के मुरझे सुमनों में, नई-नई मुसकान भरो। डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ नए स्वरों में गाते हैं। गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे मस्त हुए मँडराते हैं। नवयुग की नूतन वीणा में नया राग, नवगान भरो। कली-कली खिल रही इधर वह फूल-फूल मुस्काया है। धरती माँ की आज हो रही नई सुनहरी काया है। नूतन मंगलमय ध्वनियों से गुंजित जग-उद्यान करो। सरस्वती का पावन मंदिर यह संपत्ति तुम्हारी है। तुम में से हर बालक इसका रक्षक और पुजारी है। शत-शत दीपक जला ज्ञान के नवयुग का आह्वान करो। उठो धरा के अमर सपूतो, पुनः नया निर्माण करो।
                        गांव जहाँ व्यक्ति के उठने से पहले जिम्मेदारिया जाग जाती हो,  जहाँ बारिश के आने से पहले तिरपाल की व्यवस्था कर ली जाती हो उसे गाँव कहते है। जहाँ पढ़ने से ज्यादा डाँगरों को चराने का होड़ रहता हो, उसे गाँव कहते हैं। जहाँ बारिश की बुदे पड़ने पर मिट्टी महक जाती हो,  उसे गाँव कहते हैं। जहाँ खेलने कि उम्र में कमाने कि चिंता सता रही हो, उसे गाँव कहते हैं। जहां गाय को पाला जाता हो और कुत्ते आवारा घूमते हो, उसे गाँव कहते है जहाँ समस्याओं के कारण लोग पढ़ाई छोड़कर गुटका और शराब का सेवन करने लगे हो,  उसे गाँव कहते हैं। जहाँ के सरकारी खुल में जाकर माता-पिता पढ़ाई को छोड़‌कर खिचड़ी के बारे में ज्यादा पूछे,  उसे गाँव कहते है। भारत का प्रज्ञान रोवर पिछले एक महिने से चाँद को पढ़ रहा हो और अभी भी जहाँ डायन रहती हो,  उसे गाँव कहते है।  भारत फिर से दुनिया का सिरमौर बनने की चाहत में खड़ा हो और अभी भी जहाँ डायन रहती हो,  उसे जॉन कहते है। और जहाँ अभी भी एक आदमी दुसरे आदमी को नीच समझता हो उसे गाँव ...

उधार की कलम से....!

  उधार की कलम से...✍️ अंदाज-ए-समंदर लिखें  या तुम्हें अपने अंदर लिखें, हर घड़ी तेरी फिक्र करे  या तुझे कलंदर लिखें...? तुम ही बताओ....!  कैसे-कैसे शब्दों से हम तुम्हें नवाजे, या फिर  तुझे अंदाज-ए-बवंडर लिखे...?          -  कवि ऋषि कपूर भारती

फैसला कुदरत का भी बदलेगा

  " अगर सजदो में मजबूती होगी,  तो वक्त कभी न कभी हमे उगलेगा।  तारे गर्दिश में है आज कल तो क्या हुवा फैसला कुदरत का भी कभी बदलेगा।"                             कवि ऋषि कपूर भारती

दरियादिली की तुम कहानी क्यों नहीं लिखते?

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                    दरियादिली कि तुम कहानी क्यों नहीं लिखते  दरियादिली की तुम कहानी क्यों नही लिखते गुजरा है जो बचपन  दुखों के पड़ाव में  जवानी में उसकी कहानी क्यों नहीं लिखते  रंगीन शाम देखकर तुम भूल जाते हो वो गुलामी की बातें  दिया है आक्रांताओं ने जो तुम्हारे भारतवर्ष की छाती पर दर्द  अब तुम उसकी जबानी क्यों नहीं लिखते  लिखते हो तो बस प्यार मोहब्बत की बातें  मौका तुम्हें मिला है जब तो भगत सिंह राजगुरु और उधम सिंह की जवानी क्यों नहीं लिखते क्यों, क्यों उसे लिखने में क्या लज्जा आती है  आती है तो बोलो राज दिलों का खोलो सच् आज तुम बता दो  तुम्हारे सीने में देश का दर्द है  या मोहब्बत का धुआं उठ रहा है  अगर तुम्हारे सीने में देश का दर्द है तो  खोल दो लेखनी की धार  सिखा दो कलम को बगावत  तो लिखो लहू से जिनके भीगे हुए हैं गिरेवां अब तो तुम उन्हें गद्दार लिखो खैर ऋषि के ही कहने पर  लेकिन  गली मोहल्ले और बाजारों में सौ सौ बार लिखो         ...

मर जाना ही अच्छा है!

https://www.facebook.com/profile.php?id=100008712765060 जीवन की दस्तूर पुरानी, क्या चलते चलते थक जाना अच्छा है। सफर में हर वक्त जब ठोकर लगे, जीने से तो उस वक्त मर जाना अच्छा है। दुनिया कहती संघर्ष करो लहरों में तूफानों से, कितना अब पहचान बनाए  हम अजनबी इंसानों से, शाखो ने भी समझौता किया  अब हमारे शानो से, इससे अच्छा तो सांसों का पर जाना ही अच्छा है जीने से तो इस वक्त मर जाना है अच्छा है। क्या अभी नाखून गले है या हमारे करम जले है, सिसक सिसक कर जीने से तो घूट घूट कर मर जाना अच्छा है सफर में हर वक्त जब ठोकर लगे  उस वक्त जीने से तो मर जाना अच्छा है। जीवन है दो धारी तलवार अब इसमें क्या खोनी और क्या पानी है  अब लगता है,  खून नही यह पानी है  मीठी खट्टी यह नमकीन जवानी है! माता की आंखों में देखा  बाबूजी के हाथों में देखा  वही चीत्कार पुरानी है धो न सके अपने यौवन को  तपती दुपहरी में बेकार जवानी है। सावन बादल आए  भादो का भी आ जाना अच्छा है। कौवे आए पितृपक्ष आया  इस पुण्य माह में ही मर जाना अच्छा है जंगल में जब मन रमता हो  तो जड़ बन जाना ह...