गरीबी के पैमाने को हम कुछ इस तरह ,
झेंप लिया करते है,
झुकीं होंगी तुम्हारी सरपरस्ती में दुनिया भर की
घड़िया,
न होती है घड़ी तो हम माँ के चरणों में समय
देख लिया करते है.........
मैं स्त्री हूँ मैं स्त्री हूँ मैं नारी हूँ मैं नारी हूँ, मैं कली हूँ, मैं फुलवारी हूँ, मैं दर्शन हूँ, मैं दर्पण हूँ मैं नाद में ही गर्जन हुंँ, मैं बेटी हूँ, मैं माता हूँ, मैं बलिदानों की गाता हूँ, मैं श्रीमद्भगवद्गीता हूँ, मैं सीता हूँ। पुरुषों की इस दुनिया में मुझे कैसी नियत दिखलाई। कभी जुए में हार गए कभी अग्निपरीक्षा दिलवाई। । कलयुग हो या सतयुग हो इल्जाम मुझ पर ही आता है। क्यों घनी अंधेरी सड़कों पर चलने से मन घबराता है। । मैं डरती हूँ, मैं मरती हूँ, जब सफर अकेले करती हूँ। धनु का साम्राज्य बढ़ता है, कोई साया पीछा करता है। । मेरी मुट्ठी बन जाती है, दिल की धड़कन बढ़ जाती है। हे तरल पसीना माथे पर, इनमें मेरी घबराहट होती है। । जाने कि किस का साया है, जाने यह किस का साया है। जाने यह किसकी आहट है, जाने यह किसकी आहट है। । अंधेरे में उन हाथों ने मुझको बाहों में खींच लिया। एक नहीं मुंह पर हाथ रखा, और एक नया चल खींच लिया। । नारी के सम्मान को बिल्कुल तार-तार सा कर दिया। मर्यादा की आंचल को फिर झाड़ झाड़सा कर दिया। । मारा है मुझको, पीटा है, बालों से मुझे घसीटा है। फिर बल बलता कि ...
जब आंख खुली तो अम्मा की गोदी का एक सहारा था उसका नन्हा सा अंचल मुझको भूमंडल से प्यारा था उसके चेहरे की झलक देख चेहरा फूलों सा खिलता था उसके छाती की एक बूंद से मुझको जीवन मिलता था हांथो से बालों को नोचा पैरों से खूब प्रहार किया फिर भी उस माँ ने पुचकारा हमको जी भर के प्यार किया मैं उसका राजा बेटा था वो आंख का तारा कहती थी मैं बुढ़ापे में उसका बस एक सहारा कहती थी ऊँगली पकड़ चलाया था पढने विद्यालय भेजा था मेरी नादानी को भी निज अंतर में सदा सहेजा था मेरे सारे प्रश्नों का वो फ़ौरन जवाब बन जाती थी मेरी राहों के कांटे चुन वो खुद गुलाब बन जाती थी मै बड़ा हुआ तो कॉलेज से एक रोग प्यार का ले आया जिस दिल में माँ की मूरत थी वो रामकली को दे आया शादी की पति से बाप बना अपने रिश्तों में झूल गया अब करवाचौथ मनाता हूँ माँ की ममता ममता को भूल गया हम भूल गए उसकी ममता मेरे जीवन की थाती थी हम भूल गए अपना जीवन वो अमृत वाली छाती थी हम भूल गए वो खुद भूखी रह करके हमें खिलाती थी हमको सूखा बिस्तर देती थी खुद गीले में सो जाती थी हम भूल गए उसने ही होंठो को भाषा...
उधार की कलम से...✍️ अंदाज-ए-समंदर लिखें या तुम्हें अपने अंदर लिखें, हर घड़ी तेरी फिक्र करे या तुझे कलंदर लिखें...? तुम ही बताओ....! कैसे-कैसे शब्दों से हम तुम्हें नवाजे, या फिर तुझे अंदाज-ए-बवंडर लिखे...? - कवि ऋषि कपूर भारती
Wow suppppbbbbb yaaar Dil jit liya
ReplyDeleteLove you maaa