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"स्त्री का शिष्यत्व"

 स्त्री का शिष्यत्व स्त्री अगर शिष्य हो, तो उससे श्रेष्ठ शिष्य खोजना मुश्किल है। स्त्री का शिष्यत्व श्रेष्ठतम है। कोई पुरुष उसका मुकाबला नहीं कर सकता है। क्योंकि समर्पण की जो क्षमता उसमें है, वह किसी पुरुष में नहीं है। जिस संपूर्ण भाव से वह अंगीकार कर लेती है, ग्रहण कर लेती है, उस तरह से कोई पुरुष कभी अंगीकार नहीं कर पाता, ग्रहण नहीं कर पाता। जब कोई स्त्री स्वीकार कर लेती है, तो फिर उसमें रंचमात्र भी उसके भीतर कोई विवाद नहीं होता है, कोई संदेह नहीं होता है; उसकी आस्था परिपूर्ण है। अगर वह मेरे विचार को या किसी के विचार को स्वीकार कर लेती है, तो वह विचार भी उसके गर्भ में प्रवेश कर जाता है। वह उस विचार को भी, बीज की तरह, गर्भ की तरह अपने भीतर पोसने लगती है। पुरुष अगर स्वीकार भी करता है, तो बड़ी जद्दो-जहद करता है, बड़े संदेह खड़ा करता है, बड़े प्रश्न उठाता है। और अगर झुकता भी है, तो वह यही कह कर झुकता है कि आधे मन से झुक रहा हूँ, पूरे से नहीं। शिष्यत्व की जिस ऊंचाई पर स्त्रियां पहुंच सकती हैं, पुरुष नहीं पहुंच सकते। क्योंकि निकटता की जिस ऊंचाई पर स्त्रियां पहुंच सकती हैं, पुरुष नहीं पहुंच ...