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आँशु (जयशंकर प्रसाद)

इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती? मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती कुछ विस्मृत बीती बातें? आती हैं शून्य क्षितिज से क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी टकराती बिलखाती-सी पगली-सी देती फेरी? क्यों व्यथित व्योम गंगा-सी छिटका कर दोनों छोरें चेतना तरंगिनी मेरी लेती हैं मृदल हिलोरें? बस गई एक बस्ती हैं स्मृतियों की इसी हृदय में नक्षत्र लोक फैला है जैसे इस नील निलय में। ये सब स्फुर्लिंग हैं मेरी इस ज्वालामयी जलन के कुछ शेष चिह्न हैं केवल मेरे उस महामिलन के। शीतल ज्वाला जलती हैं ईधन होता दृग जल का यह व्यर्थ साँस चल-चल कर करती हैं काम अनल का। बाड़व ज्वाला सोती थी इस प्रणय सिन्धु के तल में प्यासी मछली-सी आँखें थी विकल रूप के जल में। बुलबुले सिन्धु के फूटे नक्षत्र मालिका टूटी नभ मुक्त कुन्तला धरणी दिखलाई देती लूटी। छिल-छिल कर छाले फोड़े मल-मल कर मृदुल चरण से धुल-धुल कर वह रह जाते आँसू करुणा के जल से। इस विकल वेदना को ले किसने सुख को ललकारा वह एक अबोध अकिंचन बे...